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Scions of Krishna: A Brief History of Jadon, Bhati and Saini Rajputs

सूने ब्रज में प्रकाश पुंज बनकर आए थे यदुकुल के पुनःसंस्थापक एवं ब्रज के पुनः निर्माता श्रीकृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी 
Editorial Note: This article has been written by Dr  Dhirendra Singh Jadaun. He hails from a Yaduvanshi Rajput family from Aligarh and he is currently Associate Professor at Shahid Captain Ripudaman Singh Government College, Sawai Madhopur, Rajasthan.  Dr Jadaun  is the media advisor of Akhil Bhartiya Kshatriya Mahasabaha (estd. 1897), which is the  apex body of Rajputs in India, currently headed by His Highness Maharaja Digvijaya Singh  Ji of Bikaner.   Dr Jadaun is a great supporter  of Saini Online and he regards Sainis of sub mountainous Punjab, Haryana , HP and Jammu to be a section of authentic Yaduvanshi Rajputs. This article is being published here unedited with his permission and as an endorsement of the narrative of Saini history presented on this online source. 

-डा. धीरेन्द्र सिंह जादौन -

June 3, 2017

"इनका शासन राजस्थान में करौली में था । यह शूरसैनी कहलाते थे । कृष्ण के दादा शूरसेन थे और इस कारण मथुरा के आस पास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था और इस क्षेत्र के यादव शूरसैनी कहलाते थे ।"

- मांगी लाल महेचा , राजस्थान के राजपूत , 1965



मुक्ति कहै गोपाल सों मेरी मुक्ति बताय ।
 ब्रज रज उड़ि मस्तक लगै ,मुक्ति मुक्त है जाय ।।

ब्रज की पावन पवित्र रज में मुक्ति भी मुक्त हो जाती है ।ऐसी महिमामयी है ये धरा ।ब्रज वसुधा को जगत अधीश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी लीलाओं से सरसाया ।"ब्रज "शब्द का अर्थ है व्याप्ति ।इस व्रद्ध वचन् के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम "ब्रज "पड़ा है ।सत्व ,रज ,तम इन तीनों गुणों से अतीत जो परमब्रह्म है ।वही व्यापक है ।इस लिए उसे "व्रज"कहते है । भगवान् श्री कृष्ण को नमन करते हुए अब मै उनके वंश यदुकुल के प्रवर्तक महाराज वज्रनाभ के इतिहास का वर्णन करने की कोसिस कर रहा हूँ

मधुवन(आधुनिक मथुरा ) पर यदुवंशी क्षत्रियों का शासन :

यदुवंशियों का राज्य मधुवन (आधुनिक मथुरा ) हुआ करता था जिसके शासक सहस्त्रबाहु अर्जुन के पुत्र मधु महाराज थे ।इन्ही मधु का पुत्र लवण था जिसके अत्याचारों से तत्कालीन जनता का बहुत उत्पीड़न हुआ था ।भगवान राम ने अपने भाई शत्रुघ्न को लवण से युद्ध करने और उसे राज्यच्युत करने भेजा था ।लवण उस युद्ध में मारा गया ।शत्रुघ्न ने मथुरा नगर वहां बसाया ।शत्रुघ्न जी ने 12 वर्ष मथुरा पर स्वयं राज्य करके अपने पुत्र शूरसेन को वहां का राजा बना दिया ।उस समय आनर्त प्रदेशपर जो यदुवंशी क्षत्रिय शाखा राज्य कर रही थी उसकेअन्तर्गतं सात्वत पुत्र भीम जो भगवान रामचन्द्र जी के समकालीन था ।शत्रुघ्न पुत्र शूरसेन मथुरा प्रदेश पर अपना आधिपत्य अधिक काल तक स्थिर नहीं रख सके।यदुवंशी राजा सात्वत भीम ने भगवान श्री राम के बाद उसे शीघ्र ही अपदस्थ कर दिया ।इसके बाद मथुरा में यदुवंशी राजा भीम के पुत्र अंधक का राज्य हुआ उस के समकालीन अयोध्या में प्रभु श्री राम के पुत्र कुश का राज्य था ।इसके बाद मथुरा में अंधक वंशीय यादव शाखा के क्षत्रिय राजाओं का राज्य कई पीढ़ीयों तक चलता रहा ।महाराज उग्रसेन तथा उनका पुत्र कंस अंधक वंशी थे ।सात्वत पुत्र भीम के एक पुत्र का नाम व्रषिनी था वसुदेव के पिता शूरसेन उन्हीं के वंश में पैदा हुए थे ।महाराज शूरसेन ने अपने नाम पर शौर पुर (आधुनिक बटेश्वर )बसा कर अपना पृथक राज्य स्थापित किया था ।यह महाराज वासुदेव के पिता शूरसेन अंधक वंशीय महाराज उग्रसेन के समकालीन थे ।इन इन्ही वसुदेव जी को उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री तथा कंस की चचेरी बहिन देवकी जी ब्याही थी जिनके भगवान श्री कृष्ण जी हुये ।बलराम जी वासुदेव जी की दूसरी पत्नी रोहिणी जी से पैदा हुये ।

शूरसेन महाजनपद  (प्राचीन ब्रज) :

यह अंधक -वृषणी नामक दो गोत्रों के यदुवंशी क्षत्रियों के दो गण राज्यों का परिसंघ था ।

1-शूरसेन मंडल ----शूरसेन मंडल की राजधानी आगरा जिलेमें यमुना किनारे बसे हुये शौरपुर नामक नगर थी जो आजकल बटेश्वर कहलाता है जिसमे वृषणी गोत्र (भगवान कृष्ण के गोत्र) के यदुवंशी के क्षत्रिय रहते थे ।यहां के शासक श्री कृष्ण के दादा महाराज शूरसेन (वासुदेव जी के पिता ) थे ।

2-मथुरा मंडल ---मथुरा मंडल की राजधानी मथुरा नगरी थी जिसमे अंधक गोत्र के यदुवंशी क्षत्रिय रहते थे ।महाराज उग्रसेन (कंस के पिता ओर देवकी जी के काका ) मथुरा मंडल के शासक थे । बाद में कंस ने अपने पिता महाराज उग्रसेन को गद्दी से हटा कर जेल में डाल दिया और स्वयं अंधक वंशी यदुवंशियों के मथुरामण्डल का शासक वन गया ।

जब श्री कृष्ण जी ने अपने मामा कंस को मार दिया तो भगवान श्री कृष्ण के कारण यदुवंश गौरवशाली हुआ । भगवान श्री कृष्ण जी के दादा महाराज शूरसेन के नाम से यह ब्रज प्रदेश पुनः अंधक ओर वृषणी गोत्रों के दोनों गण राज्यों को मिला कर शूरसेन महाजनपद के नाम से जाना गया तथा श्री कृष्ण जी ने महाराज उग्रसेन को इस शूरसेन महाजनपद का राजप्रमुख बनाया और श्री कृष्ण इस संघ के प्रमुख नेता बनाये गये ।कंस का श्री कृष्ण जी के द्वारा मारे जाने के बाद से जरासंध श्री कृष्ण जी को अपना शत्रु समझने लगा ।उसने कंस की मृत्यु का बदला लेने के लिए विशाल सेना सहित कई बार मथुरा पर आक्रमण किये परन्तु प्रत्येक बार उसे बिफल होकर वापिस लौटना पड़ा ।सत्रहवीं बार उसने कालयवन की सेनाओं सहित आक्रमण करने की योजना बनाई ।जब इस युद्ध की सूचना अंधक -व्रषनी संघ के लोगों को मिली तब संघ के कुछ नेताओं ने कहा कि जरासंध के आक्रमणों की समस्या श्री कृष्ण से जरासंध की व्यक्तिगत शत्रुता है अर्थात श्री कृष्ण के कारण संघ को जरासंध से युद्ध करना पड़ रहा है ।श्री कृष्ण जीने इस अपवाद पर बड़ा नीतिज्ञतापूर्ण कदम उठाया ।उन्होंने सजातीय भाइयों को संबोधित करते हुए कहा कि जिन यदुवंशी भाइयों को बजह से मथुरा पर जरासंध के आक्रमण होते है उन्हें मथुरा छोड़ देनी चाहिए ।उनकी यह राय बहुत लोगों को पसंद आयी और थोड़े से कुकुर महा -भोजियों गोत्र के यदुओ के अतिरिक्त समस्त अंधक -वर्षनी संघ के यदुवंशी श्री कृष्ण के साथ मथुरा का परित्याग करने को उद्धत हो गये ।इस योजना को इतिहास में "महाभिनिष्क्रमण "कहते है ।पुनर्वास के लिए द्वारिकापुरी उपयुक्त समझी गई ।वह स्थान दूर होने के कारण जरासंध की पहुंच सेबाहर था ।योजना वद्ध तरीके से श्री कृष्ण अपने यदुवंशी भाइयों सहित जरासंध से बच कर रास्ते में मुचकुंद जी के द्वारा कालयवन को मरवा कर द्वारिका इस प्रकार पहुंचे ।इधर जरासंध ने आक्रमण कर मथुरा पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया ।वहाँ पर जो कुकुर भोजवंशी यादव क्षत्रिय थे उन्होंने जरासंध से सन्धि कर ली ।श्री कृष्ण के द्वारिकापुरी पहुंचने पर वहां बड़ी उन्नति हुई ओर बहुत ही वैभवशाली नगरी हो गई ।श्री कृष्ण जी के तत्वावधान में द्वारिकापुरी में एक सुद्रढ़ यादव क्षत्रिय गणराज्य की स्थापना हो गई ।जिसके वैभव और शक्ति सम्पन्नता की ख्याति सारे देश में फैल गई।

कैसे हुआ यदुकुल पतन :

जब दुर्वासा आदि ऋषियों के शाप से जामवंतीनंदन शाम्ब के पेट से जो मूसल निकला उसको पीस कर समुद्र में फेंक दिया गया।उसका एरक बन गया।उसे एक मछली निगल गई। उसे एक व्याध ने पकड़ा और और उसके पेट से शिकारी को एक तीर के आकार का टुकड़ा मिला। इससे व्याध ने एक अच्छा सा तीर बना लिया।इसके बाद व्याध ने द्वारिका में उत्पात मचाया।इधर श्रीकृष्ण जी ने उद्धव को समझा कर बद्रिकाश्रम नामक वन में भेज दिया।द्वारिका के सारे निवासियों ने आकर श्रीकृष्ण से गुहार की कि नगर में उत्पात बढ़ गए है।भगबान तो सबकुछ जानते थे।अब यदुकुल के नाश होने का समय आगया है।सभी यादव द्वारिका के पास वाले प्रभास क्षेत्र तीर्थ पर जमा हुए।कृष्ण के आदेश से सभी यादवों ने उस जगह स्नान और दान कर्म संपन्न किय और मनोरंजन के लिए मधपान की सभा लगी।उस वारुणी या मैरेयक नामक मदिरा का पान करके सभी यादव प्रभास क्षेत्र में आपस में लड़ने लगे।यधपि श्रीकृष्ण जी ने उन्हें बहुत रोका समझाया पर वे नही माने।तब श्री कृष्ण ने क्रोध कर एरक की गटर तोड़ी।इससे वे तीर लोहे के मूसल में बदल गए जिसने बाद में उछल उछल कर यदुवंशियों का संहार कर दिया।एक वृक्षके नीचे बलदेव जी ने अपने नर रूप आवरण को उतार फेंका अर्थात् शेषनाग के रूप में निकले और जा कर समुद्र में प्रवेश कर गए।इस प्रकार समुद्र के जल मार्ग से शेषावतार बलदेव जी अपने नगर को चले गए।इस प्रकार बलदेव जी का अपने लोकमे जाना देख कर भगबान श्रीकृष्ण ने अपने सारथी दारुक को बुलाया और कहा कि हे दारुक तुम द्वारिका में हमारे माता -पिता से कहना की बलदेबऔर यादव कुल का नाश हो गया हैऔर मै भी अब योग विद्या के बल पर अपनी मानव देह को त्याग दूंगा।हाँ यह अवश्य कहना क़ि अर्जुन तुम्हारे पास आएगा उसके साथ सभी यदुवंशी अपने परिवार वालों के साथ द्वारिका से बाहर चले जाय । मेरे घर पर (द्वारिका नगरी ) नहीं रहने पर द्वारिका पूरी को समुद्र लील जाएगा।इस लिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा और करे तथा अर्जुन के यंहा से लौटते ही फिर कोई भी यादव द्वारिका में नही रहे।ज सब लोग अपनी अपनी धन ,संपत्ति ,कुटुम्ब और मेरे माता -पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इंद्रप्रस्थ चले जाय।दारुक तुम मेरी तरफ से अर्जुनसे कहना कि वह अपने सम्यानुसार तुम मेरे परिवार के लोगों की रक्षा करे।हमारे पीछे वज्र यदुवंश का राजा होगा।सारे समाचार कहलवाने को श्रीकृष्ण ने अपने सारथी दारुक को अच्छी तरह समझाकर द्वारिकापुरी भेजा।इसके बादउन्होंने अपनी नर देह के त्याग का विचार किया।माधव का जैत्रम नामक रथ अपने सैवयादि अश्वों सहित समुद्र में प्रवेश कर अपने घर स्वर्ग को गया।इसके बाद सारे अस्त्र जेसे सारंग धनुष ,नन्दक नामक खरग ,गदा सुदर्शन चक्र पाञ्चजन्य शंख और टीर्काश सभी आयुध श्री कृष्ण जी की प्रदक्षिणा कर आकाश मार्ग को चले गए। दारुक ने यदुवंशियो के नाश का समाचार द्वारिका में उग्रसेन एव् सभी बचे हुये यादवों को बताया। श्री कृष्ण जी अपने एक पांव पर दूसरा रख कर योगमुद्रा में बैठे और ब्रहम् में अपना ध्यान लीन किया ही था कि तभी एक ज़रा नाम व्याध शिकारी आया और उसने भगबान के पांव तीर मारा जो सीधा भगवान् श्री कृष्ण की पगतालि में जाकर लगा।भगबान एक सूंदर विमान में बैठ कर स्वर्ग को चले गए। भगवान् श्री कृष्ण के न रहने पर समुद्र ने एक मात्र श्री कृष्ण जी के निवास स्थान को छोड़ कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबोदी ।इस दुखद समाचार को सुन कर यादवराज उग्रसेन और वसुदेव आदि सभी वयो व्रद्ध यदुवंशी भगवान् श्री कृष्ण के वियोग को सहन नही कर सके और सभी ने अपने प्राण त्याग दिए । रोहिणी , देवकी तथा सभी पटरानियों ने अग्नी में प्रवेश कर प्राण त्याग दिए।

सभी यदुवंशियों को पांडवों ने सर्वप्रथम बसाया था पंचनंद (आधुनिक पंजाब )में :

भगवान श्री कृष्ण के परलोक गमन के बाद समुद्र ने भगवान के महल को छोड़ कर सम्पूर्ण द्वारिका नगरी को जल में डुबो दिया और सब कुछ समाप्त हो गया । इसके बाद द्वारिका में अर्जुन ने सभी मृत यादवों का दाहसंस्कार करके सोलह हजार एक सौ ललनाओं के साथ अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को लेकर इंद्रप्रस्थ आये और सभी यादवों को पंचनद जिसको पंजाव कहते है में वसया ।

यदुवंशियों का मथुरा पर पुनः शासन:

भगवान् श्री कृष्ण के तिरोधान के बाद ब्रजभूमि सूनी हो गयी थी ।जगत अधीश्वर कृष्ण की सभी लीला स्थलियां लुप्त होगयी ।तब उनके प्रपौत्र वज्रनाभ जी ब्रज में प्रकाश पुंज बनकर आये । वज्रनाभ को इंद्रप्रस्थ से लाकर पांडवों के वंशज महाराज परीक्षत ने मथुरा का राजा बनाया।वज्रनाभ जी की माता विद्भ्रराज रुक्मी की पौत्री थी जिनका नामरोचना या सुभद्रा था।अनुरुद्ध जी की माता का नाम रुकंवती या शुभांगी था जो रुक्मणी के भाई रुक्म की पुत्री थी। वज्रनाभ जी ने माधव की लीलाओं से ब्रज चौरासी कोस को चमक दिया ।लीला स्थलियों पर समृति चिन्ह बन वा कर ब्रज को सजाने संवारने की पहल सर्व प्रथम वज्रनाभ जी ने ही की थी ।महाराज वज्रनाभ के पुत्रप्रतिवाहु हुए उनके पुत्रसुवाहु। हुए सुवाहऊ क शांतसेन्। शांतसेन् से शत्सन हुए।वज्रनाभ ने शांडिल जी के आशीर्वाद से गोवर्धन( दीर्घपुर ), मथुरा , महावन , गोकुल (नंदीग्राम ) और वरसाना आदि छावनी बनाये।और उद्धव जी के उपदेशानुसार बहुत से गांव बसाये।उस समय मथुरा की आर्थिक दशा बहुत खराब थी।जरासंध ने सब कुछ नष्ट कर दिया था।राजा परीक्षत ने इंद्रप्रस्थ से मथुरा में बहुत से बड़े बड़े सेठ लोग भेजे।इस प्रकार राजा परीक्षत की मदद ओर महर्षि शांडिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगबान ने अपने प्रेमी गोप गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएं की थीं।लीला स्थलों का ठीक ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहां की लीला के अनुसार उस स्थान का नामकरण किया।भगबान के लीला विग्रहों की स्थापना की तथा उन उन स्थानों पर अनेकों गांव वसाए।स्थान स्थान पर भगबान श्री कृष्ण के नाम से कुण्ड ओर कूए व् वगीचे लगवाये।शिव आदि देवताओ की स्थापना की। गोविन्द , हरिदेव आदि नामो से भगवधि गृह स्थापित किये।इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सबओर एक मात्र श्री माधव भक्ति का प्रचार किया।इस प्रकार वजनाभ् जी को ही मथुरा का पुनः संस्थापक के साथ -साथ यदुकुल पुनः प्रवर्तक भी माना जाता है ।इनसे ही समस्त यदुवंश का विस्तार हुआ माना जाता है। बज्रनाभ जी को ही भगवान श्री कृष्ण का प्रतिरूप माना गया है ।वज्रनाभ जी की ही बजह से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा आरम्भ हुई।उन्होंने ही ब्रज में 4 प्रसिद्ध देव प्रतिमा स्थापित की।मथुरा में केशव देव ,वृंदावन में गोविन्ददेव ,गोवर्धन में हरि देव ,बलदेव में दाऊजी स्थापित किये थे ।इन यदुवंशियों का राज्य ब्रज प्रदेश में सिकंदर के आक्रमण के समय भी होना पाया जाता है ।समय -समय पर शक ,मौर्य गुप्त और शिएथियन आदि ने इन शूरसेन वंशी यादव क्षत्रियों केमथुरा राज्य को दबाया /छीना गया लेकिन मौका पाते ही यदुवंशी फिर स्वतंत्र हो जाते थे ।जब चीनी यात्री सन 635 में भारत आया था उस समय मथुरा का शासक कोई सूद्र था ।लेकिन मथुरा के आस पास के क्षेत्र जैसे मेवात ,भदानका/शिपथा (आधुनिक बयाना) ,कमन (8 वीं तथा 9 वीं सदी ) के शासक शूरसैनी शाखा के ही थे जिनके नाम भी प्राप्त है । इस काल में मथुरा पर शासन कनौज के गुजरप्रतिहार शासकों था ।इस काल में यदुवंशी उनके अधीनस्थ रहे हों ।लेकिन इसी समय में मथुरा के शासक यदुवंशी राजा धर्मपाल भगवान श्रीकृष्ण के 77वीं पीढ़ी में मथुरा के आस पास के क्षेत्र के शासक रहे है जिनके कई प्रमुख वंशज ब्रह्मपाल ,जयेंद्र पाल मथुरा के शासक 9 वीं सदी तक मिलते है इसके बाद महमूद गजनवी के काल में भी मथुरा /महावन पर यदुवंशियों जैसे कुलचंद राजा का शासन थी ।इसके बाद भी शूरसेन शाखा के भदानका /शिपथा (आधुनिक बयाना );त्रिभुवनगिरी (आधुनिक तिमनगढ़ ) के कई शासको जैसे राजा विजयपाल (1043),राजा तिमानपल (1073), राजा कुंवरपाल प्रथम (1120), राजा अजयपाल जिनको महाराधिराज की उपाधि थी (1150) नें महावन के शासक थे इनके बाद इनके वंसज हरिपाल (1180), सोहनपाल (1196)महावन के शासक थे ।इसी समय बयाना और त्रिभुवनगिरी पर राजा धर्मपाल के बेटे कुंवरपाल दुतीय का शासन था जिसका युद्ध मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक से हुआ था ।इसके बाद भी महावन के राजा महिपाल यदुवंशी क्षत्रिय रहे है जो बाद में उनके वंशज कुछ हंगा जाट वन गये ।

बज्रनाभ जी की जयन्ती :

भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध् कर्ता डा0 अशोक वुश्वामित्र कौशिक के अनुसार वज्रनाभ जी का जन्म चैत शुक्ल प्रतिपदा युधिष्ठर संवत 27 को द्वारिका में हुआ और 10 वर्ष की आयु में ही संवत 38 को दिन के मध्यकाल में वह इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर विराजमान हुए थे ।जन्मतिथि के दिन ही वज्रनाभ जी का राज्याभिषेक हुआ था ।इस लिए वज्रनाभ जी को ही यदुकुलक पुनः संस्थापक एवं ब्रज का पुननिर्माता माना जाता है।ब्रज में ही यदुवंशियों के गाँव करहला में वज्रनाभ जी की समाधि है ।लगभग 2 वर्ष पूर्व मथुरा के छाता क्षेत्र के रन वारी गांव में यदुवंशी राजपूतों के द्वारा वज्रनाभ जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई है और प्रत्येक वर्ष उनकी जयंती भी समाज के द्वारा मनायी जाती है जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र है ।इस वर्ष राया ओर बलदेव मार्ग पर स्थित जादौन राजपूतों के गांव "बंदी "में भी यदुवंश प्रवर्तक भगवान बज्रनाभ जी की मूर्ति का किसी मंदिर में स्थापना हुई है जो समाज के लिए एक शुभ संदेश है ।भगवान श्री कृष्ण पर तो अन्य समाजों के लोगों ने अपना मनगढ़ंत इतिहास लिख कर उनके वंशज बनने की कोशिश की है लेकिन वह सर्व मान्य नहीं है ।सच्चाई से सभी वाकिफ है ।अभी उन कथाकथित लोगों को बज्रनाभ जी के विषय में अधिक जानकारी नहीं है नहीं तो अब वे बज्रनाभ जी के बंशज लिखना आरम्भ कर देंगे ।इस लिए समस्त यदुवंश समाज को अब जाग्रत होने की इस विषय में आवश्यकता है नहीं तो आगे चल कर ये यदुवंशी /जादौन उपनाम को भी दूसरे लोग अधिग्रहण कर लेंगे।हालांकि आज के समय में सब स्वतंत्र है कोई कुछ भी लिखना चाहे लिख सकता है लेकिन इस यदुवंश क्षत्रियों के इतिहास में ज्यादा हेरा फेरी करके कुछ समाज अपनी महत्वाकांछा के लिए अपना इतिहास बना रहे है जो पूर्णतः मिथ्या है ।कुछ समाज विशेष के माननीय इतिहासकारों ने तो बहुत ही चतुराई से सम्पूर्ण श्रीमद भागवत पुराण ,विष्णुपुराण ,सुखसागर ,वायुपुराण ,अग्निपुराण ,हरिवंशपुराण गर्गसंहिता एवं अन्य क्षेपकों से सम्पूर्ण ययाति के चंद्र वंश से लेकर महाराज यदु के सम्पूर्ण यदुवंश /यादव वंश के इतिहास को जोड़तोड़ करके अपना इतिहास बना लिया है तथा विदेशी साइटों पर भी अपलोड कर दिया है और भगवान श्रीकृष्ण के असली वंशज बन गये ।जब कि भगवान श्रीकृष्ण से उनका कोई भी किसी भी पीढ़ी पर लिंक ही नहीं मिलता ।

यदुवंशी क्षत्रियों के मुगलों के आगमन से पूर्व विभिन्न राज्य:

भारत में मुसलमानों के आने के पहले शूरसैनी शाखा केक्षत्रिय यदुवंशियों का राज्य काठियावाड़ 'कच्छ , पंजाब , हिमाचल हरियाणा जम्बू , यहां तक कि दक्षिण में भी इसके राज्य होने के प्रमाण प्राचीन शिलालेखों व् ताम्रपत्रों से मिलते है ।दक्षिण का सेउन प्रदेश जो नासिक से दौलताबाद (निजाम राज्य )तक का भू -भाग है ,वह भी किसी समय यदुवंशी क्षत्रियों के अधिकार में था ।दक्षिण में द्वार समुद्र ,जो मैसूर राज्य के अंतर्गत है तथा विजयनगर (दक्षिण )यदुवंशी राजवंश के अधिकार में थे ।इनका प्रभुत्व सिंधु नदी के दक्षिणी भाग में तथा पंजाब में भी रहा था ।

मथुरा से महमूद गजनवी के आक्रमण के पूर्व एवं बाद में हुआ यदुवंशियों (जदौनों) का विभिन्न क्षेत्रों में पलायन एवं पुनः मथुरा पर शासन:

जब महमूद गजनवी ने सन् 1018 ई0 के आस पास मथुरा पर आक्रमण किया था उस समय महावन का यदुवंशी राजा कुलचंद था ।उसने गजनवी के साथ भयंकर युद्ध किया किन्तु अंत में हार का सामना करना पड़ा ।करौली पौराणिक यादव /जादौन राजवंश का मूल पुरुष राजा बिजयपाल मथुरा के इसी यादव /शूरसैनी /जादौन राजवंश से था ।जो बज्र नाभ जी के ही इस यदु वंश में इनके 85 पीढ़ी बाद मथुरा के राजा बने । वह गजनवी के आक्रमणों के कारण पूर्व में ही अपनी राजधानी मथुरा से हटाकर पास की मानी पहाड़ी पर लेगये क्यों कि ये स्थान पर्वत श्रेणियों से घिरा रहने के कारण आक्रमणों से सुरक्षित था।उस समय मैदानों की राजधानियाँ सुरक्षित नहीं समझी जाती क्यों कि गजनी (कावुल )की तरफ से मुगलों के हमले होने शुरू हो गये थे। राजा बिजयपाल ने वहां एक किला "विजय मंदिर गढ़ "सन् 1040 में बनवाकर अपनी राजधानी स्थापित की ।यही किला बाद में बयानाके गढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।बिजयपाल को भगवान् श्री कृष्ण के 88 वीं पीढ़ी में होना बतलाया जाता है ।

कई बार हुआ बयाना एवं तिमनगढ़ (त्रिभुवनगिरी) से यदुवंशि क्षत्रियो (जादौन) का बिभिन्न क्षेत्रों में पलायन:

राजा बिजयपाल की मृत्यु केबाद पलायन:

-बयाना के राजा बिजयपाल का समय स0 1150 (ई0 सन् 1093के आस पास रहा होगा।उनकी मुठभेड़ गजनी के मुसलमानों से बयाना में हुई थी जिसमें उनकी मृत्यु होगयी थी ।उस समय बयाना पर मुगलों का अधिकार हो जाने के कारण काफी यदुवंशी क्षत्रिय उत्तर की ओर पलायन कर गये । जिनमे मुख्य पलायन उस समय एटा जिले के जलेसर क्षेत्र और मध्य प्रदेश के होसंगावाद के शिवनी मालवा क्षेत्र 'एवं गोंडवाना के अन्य क्षेत्रों में हुआ जिसके प्रमाण जगाओं और ताम्र पत्रों से मिल चुके है ।

सन् 1196 में राजा कुंवरपाल दुतीय के बाद पुनः बयाना और तीमन गढ़ से यदुवंशियों का दुतीय पलायन:

राजा बिजयपाल के बाद उनके बड़े पुत्र तिमन पाल ने तिमन गढ़ का किला बनबाया।इनके राज्य में वर्तमान अलवर 'राज्य का आधा हिस्सा ,भरतपुर 'धौलपुर व् करौली के राज्य तथा गुणगाँव व् मथुरा से लेकर आगरा व् ग्वालियर के कुछ भाग भी सम्लित थे ।सन् 1158 के आस पास इन्होंने पुनः बयाना पर कब्ज़ा कर लिया था। बाद में इनके वंशधर कुंवरपाल दुतीय को सन् 1196 में मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुउद्दीन ऐबक से हारकर बयाना और तिमनगढ़ छोड़ने पड़े थे और बयाना व् तिमनगढ़ पर पुनः मुगलों (मुहम्मद गौरी एवं उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ) का अधिकार होगया था । इस लिए महाराजा कुंवरपाल दुतीय नेअपने साथियों सहित अपने मामा के घर रीवां के अन्धेरा कटोला नामक गांव में जाकर निवास किया ।सन् 1196 से सन् 1327 तक इस क्षेत्र पर मुगलों का अधिकार रहा।मुगलों के अत्याचार भरे शासन के कारण बयाना और तिमन गढ़ के काफी यदुवंशी क्षत्रिय उत्तर -पश्चिम की ओर पलायन कर गये ।इनमे कुछ तिजारा व् सरहत् (उत्तरी अलवर )में जा रहे ।बाद में उनमें से कुछ ने मुस्लिम धर्म अपना लिया और मेव तथा खान जादा कहलाने लगे जो आजकल अलवर व् मेवात क्षेत्र में पाये जाते है ।इसी समय बहुत से यदुवंशी राजपूत पुनः मथुरा के बिभिन्न भागों में जैसे महावन ,छाता ,वरसाना ,शेरगढ़ आदि क्षेत्र ,भरतपुर के कामा और डींग के क्षेत्र , आगरा जिले में शमसाबाद ,फतेहाबाद ,किरावली ,अछनेरा व् मथुरा तथा भरतपुर सीमा के फरह क्षेत्र , बुलहंदशहर के जेवर क्षेत्र के जादौन राजपूत जो अपने को अब छौंकर राजपूत कहते है वे भी इसी समय तिमनगढ़ व् बयाना क्षेत्र से अहरदेओ या द्रोपाल यदुवंशी राजपूत सरदार केवंशज है जिनको जेवर के ब्राह्मणों ने मेवातीओं से लड़ने के लिए जेवर में बसाया था ।उन्होंने जेवर को मेवातीओं से मुक्त कराया था। इसके अलावा अलीगढ ,बुलहंदशहर ,इटावा ,भदावर क्षेत्र और हाथरस के पोर्च और वागर यदुवंशी राजपूत जो हसायन ,गिडोरा ,मेंडू ,दरियापुर में पाये जाते है उनका भी पलायन तिमनगढ़ से इसी समय पृथ्वीपाल यदुवंशी और उनके बंशज इस क्षेत्र में आये ।इसके अलावा उत्तरप्रदेश के अन्य जिलों जैसे कानपुर ,इटावा ,जालौन(कालपी), रायबरेली ,शाहजनपुर ,हरदोई इलाहबाद में भी काफी यदुवंशी(जादौन क्षत्रिय) है जिनकी जानकारी की जारही है । कुछ यदुवंशी तिमनगढ़ से राजस्थान के चित्तौड़ ,उदयपुर ,भीलवाड़ा ,पाली ,कोटा ,बारां जिलों में भी कुछ ठिकानो में जा बसे है ।

करौली राज्य की स्थापना (सन 1348 ) में राजा अर्जुनपाल के द्वारा की गई :

कुंवरपाल 2 के भाई के वंशज अर्जुनपाल जी ने सन् 1327ई0 के लगभग मंडरायल के शासक मिया मक्खन को मार के उस क्षेत्र पर अधिकार किया और सरमथुरा के 24 गांवों को बसाया और धीरे धीरे अपने पूर्वजों के राज्य पर पुनः अधिकार किया ।सन्1348ई0 में इन्होंने कल्याणजी का मंदिर बनवाकर कल्याणपुरी नगर बसाया जो अब करौली कहलाता है ।यही इस राज्य की राजधानी बना ।आज लगभग यहाँ जादौन राजपूतों के 100 गांव है ।इसी के आस पासके क्षेत्र सरमथुरा के पास धौलपुर जिले में भी 24 -30 के लगभग जादौन गांव है।

 मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के सबलगढ़ क्षेत्र में 50 तथा कुछ गांव श्योपुर जिले में तथा इंदौर जिले में भी जादौन राजपूत पाये जाते है जो पाल ,हरिदास एवं मुक्तावत शाखा के जादौन राजपूत है ।इसके अलावा कुछ करौली एवं मथुरा क्षेत्र से विस्थापित मध्यप्रदेश के ही भिंड ,गुना ,विदिशा ,अशोकनगर ,शिवनी मालवा होसंगवाद तथा रायसेन जिलों में भी बहुत से जादौन राजपूतों के गांव है ।

यदुवंशी (पौराणिक यादव ) राजपूतों की अन्य शाखा व् उपशाखायें :

जब अर्जुन ने यदुवंशियों को द्वारिका से पचनंद (पंजाब )में बसाया था तो उन्होंने अपने आप को अपने पूर्वजों के नाम से अलग अलग शाखाओं में विभाजित कर लिया जिनमें मुख्यरूप से शूरसेनी शाखा के सैनी (हरियाणा ,पंजाब ,हिमाचल जम्बू क्षेत्र के यदुवंशी क्षत्रिय ) जादौन ,बनाफर ,काबा ,जाडेजा ,भाटी ,हाल ,छौंकर ,जस्सा ,उनड़ ,केलण ,रावलोत ,चुडासमा ,सरबैया ,रायजादा ,पाहू ,पुंगलिया ,जैसवार ,पोर्च ,बरगला ,जादव ,जसावत ,बरेसरी ,आदि आते है। जय यदुवंश ।जय राजपूताना।। 

 डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव - लढोता , सासनी,

जिला हाथरस, उत्तरप्रदेश।
 मीडिया सलाहकार अखिलभारतीय क्षत्रिय महासभा 
(अध्यक्ष ,महाराजा दिग्विजय सिंह जी वांकानेर )


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Disclaimer: This is Coat of Arms of Karauli State and has  been shown here for historical illustration  purpose only  based on fair use policy. This insignia should not be otherwise downloaded or distributed without the express permission of the legal heirs of the erstwhile Karauli State.


"सात्वत पुत्र भीम के एक पुत्र का नाम व्रषिनी था वसुदेव के पिता शूरसेन उन्हीं के वंश में पैदा हुए थे ।महाराज शूरसेन ने अपने नाम पर शौर पुर (आधुनिक बटेश्वर )बसा कर अपना पृथक राज्य स्थापित किया था ।यह महाराज वासुदेव के पिता शूरसेन अंधक वंशीय महाराज उग्रसेन के समकालीन थे ।इन इन्ही वसुदेव जी को उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री तथा कंस की चचेरी बहिन देवकी जी ब्याही थी जिनके भगवान श्री कृष्ण जी हुये ।बलराम जी वासुदेव जी की दूसरी पत्नी रोहिणी जी से पैदा हुये ।"






"श्री बज्रनाभ जी जो की श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र थे उनको पांडवों ने जब समस्त यदुवंशी क्षत्रिय द्वारिका में मारे गये थे तब मथुरा लाकर शूरसेनाधिपति के रूप में मथुरा का राजा बनाया था ।इनसे से ही समस्त शूरसैनी /सैनी शाखा के यदुवंशी क्षत्रियों का वंश चला है ।"

- Dr. Dhirendra Singh Jadaun,  Akhil Bhartiya Kshatriya Mahasabaha (estd. 1897) 








"यदुवंशी (पौराणिक यादव ) राजपूतों की अन्य शाखा व् उपशाखायें :

जब अर्जुन ने यदुवंशियों को द्वारिका से पचनंद (पंजाब )में बसाया था तो उन्होंने अपने आप को अपने पूर्वजों के नाम से अलग अलग शाखाओं में विभाजित कर लिया जिनमें मुख्यरूप से शूरसेनी शाखा के सैनी (हरियाणा ,पंजाब ,हिमाचल जम्बू क्षेत्र के यदुवंशी क्षत्रिय ) जादौन ,बनाफर ,काबा ,जाडेजा ,भाटी ,हाल ,छौंकर ,जस्सा ,उनड़ ,केलण ,रावलोत ,चुडासमा ,सरबैया ,रायजादा ,पाहू ,पुंगलिया ,जैसवार ,पोर्च ,बरगला ,जादव ,जसावत ,बरेसरी ,आदि आते है।"

- Dr. Dhirendra Singh JadaunAkhil Bhartiya Kshatriya Mahasabaha (estd. 1897) 







"शूरसेन मंडल ----शूरसेन मंडल की राजधानी आगरा जिलेमें यमुना किनारे बसे हुये शौरपुर नामक नगर थी जो आजकल बटेश्वर कहलाता है जिसमे वृषणी गोत्र (भगवान कृष्ण के गोत्र) के यदुवंशी के क्षत्रिय रहते थे ।यहां के शासक श्री कृष्ण के दादा महाराज शूरसेन (वासुदेव जी के पिता ) थे ।"







" वज्रनाभ को इंद्रप्रस्थ से लाकर पांडवों के वंशज महाराज परीक्षत ने मथुरा का राजा बनाया।वज्रनाभ जी की माता विद्भ्रराज रुक्मी की पौत्री थी जिनका नामरोचना या सुभद्रा था।अनुरुद्ध जी की माता का नाम रुकंवती या शुभांगी था जो रुक्मणी के भाई रुक्म की पुत्री थी। वज्रनाभ जी ने माधव की लीलाओं से ब्रज चौरासी कोस को चमक दिया ।लीला स्थलियों पर समृति चिन्ह बन वा कर ब्रज को सजाने संवारने की पहल सर्व प्रथम वज्रनाभ जी ने ही की थी "




"जब महमूद गजनवी ने सन् 1018 ई0 के आस पास मथुरा पर आक्रमण किया था उस समय महावन का यदुवंशी राजा कुलचंद था ।उसने गजनवी के साथ भयंकर युद्ध किया किन्तु अंत में हार का सामना करना पड़ा ।करौली पौराणिक यादव /जादौन राजवंश का मूल पुरुष राजा बिजयपाल मथुरा के इसी यादव /शूरसैनी /जादौन राजवंश से था ।जो बज्र नाभ जी के ही इस यदु वंश में इनके 85 पीढ़ी बाद मथुरा के राजा बने । "

- Dr. Dhirendra Singh JadaunAkhil Bhartiya Kshatriya Mahasabaha (estd. 1897) 






"इस वर्ष राया ओर बलदेव मार्ग पर स्थित जादौन राजपूतों के गांव "बंदी "में भी यदुवंश प्रवर्तक भगवान बज्रनाभ जी की मूर्ति का किसी मंदिर में स्थापना हुई है जो समाज के लिए एक शुभ संदेश है ।भगवान श्री कृष्ण पर तो अन्य समाजों के लोगों ने अपना मनगढ़ंत इतिहास लिख कर उनके वंशज बनने की कोशिश की है लेकिन वह सर्व मान्य नहीं है ।सच्चाई से सभी वाकिफ है ।अभी उन कथाकथित लोगों को बज्रनाभ जी के विषय में अधिक जानकारी नहीं है नहीं तो अब वे बज्रनाभ जी के बंशज लिखना आरम्भ कर देंगे ।इस लिए समस्त यदुवंश समाज को अब जाग्रत होने की इस विषय में आवश्यकता है नहीं तो आगे चल कर ये यदुवंशी /जादौन उपनाम को भी दूसरे लोग अधिग्रहण कर लेंगे।हालांकि आज के समय में सब स्वतंत्र है कोई कुछ भी लिखना चाहे लिख सकता है लेकिन इस यदुवंश क्षत्रियों के इतिहास में ज्यादा हेरा फेरी करके कुछ समाज अपनी महत्वाकांछा के लिए अपना इतिहास बना रहे है जो पूर्णतः मिथ्या है ।कुछ समाज विशेष के माननीय इतिहासकारों ने तो बहुत ही चतुराई से सम्पूर्ण श्रीमद भागवत पुराण ,विष्णुपुराण ,सुखसागर ,वायुपुराण ,अग्निपुराण ,हरिवंशपुराण गर्गसंहिता एवं अन्य क्षेपकों से सम्पूर्ण ययाति के चंद्र वंश से लेकर महाराज यदु के सम्पूर्ण यदुवंश /यादव वंश के इतिहास को जोड़तोड़ करके अपना इतिहास बना लिया है तथा विदेशी साइटों पर भी अपलोड कर दिया है और भगवान श्रीकृष्ण के असली वंशज बन गये ।जब कि भगवान श्रीकृष्ण से उनका कोई भी किसी भी पीढ़ी पर लिंक ही नहीं मिलता ।"

- Dr. Dhirendra Singh JadaunAkhil Bhartiya Kshatriya Mahasabaha (estd. 1897) 



"इनका शासन राजस्थान में करौली में था । यह शूरसैनी कहलाते थे । कृष्ण के दादा शूरसेन थे और इस कारण मथुरा के आस पास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था और इस क्षेत्र के यादव शूरसैनी कहलाते थे ।"

- मांगी लाल महेचा , राजस्थान के राजपूत , 1965




"बयाना के राजा बिजयपाल का समय स0 1150 (ई0 सन् 1093के आस पास रहा होगा।उनकी मुठभेड़ गजनी के मुसलमानों से बयाना में हुई थी जिसमें उनकी मृत्यु होगयी थी ।उस समय बयाना पर मुगलों का अधिकार हो जाने के कारण काफी यदुवंशी क्षत्रिय उत्तर की ओर पलायन कर गये । जिनमे मुख्य पलायन उस समय एटा जिले के जलेसर क्षेत्र और मध्य प्रदेश के होसंगावाद के शिवनी मालवा क्षेत्र 'एवं गोंडवाना के अन्य क्षेत्रों में हुआ जिसके प्रमाण जगाओं और ताम्र पत्रों से मिल चुके है ।"

- Dr. Dhirendra Singh JadaunAkhil Bhartiya Kshatriya Mahasabaha (estd. 1897) 


"The Muhammadan invasions drove a wedge through the Rajput principalities of the eastern Punjab. Some of the Rajput clans fled to the deserts of Rajputana in the south, others overcame the petty chiefs of Himalayan districts and established themselves there. A few adventurers came to terms with the invaders and obtained from them grants of land. The Sainis trace their origin to a Rajput clan who came from their original home near Mathura  on Jumna, south of Delhi, in defence of the Hindus against the first Muhammadan invasions."

-The land of the five rivers; an economic history of the Punjab from the earliest times to the year of grace 1890, pp 100, Hugh Kennedy Trevaskis, [London] Oxford University press, 1928