रण बांकुरा सैनी राजपूत

राणा गुरदान सैनी ने 14 वीं सदी ईस्वी में तुर्कों के खिलाफ राजा हमीर देव के राजपूत बल की कमान संभाली।
कवि-विद्वान अमीर खुसरो द्वारा लिखित मिफ्ताह-अल-फुतुह में रणथंभौर की लड़ाई के दिन पर तुर्कों के बीच सबसे खूंखार राजपूत योद्धा के रूप में गुरदान सैनी वर्णित है। उनकी मृत्यु लड़ाई का निर्णायक मोड़ थी। उनके शहीद होते ही राजपूत सेना मनोबल खो बैठी और उथल-पुथल हो गयी।

"राय घबरा गया और उसने गुरदान सैनी के लिए संदेशा भेजा जो राय के चालीस हज़ार घुड़सवारों में सबसे अनुभवी योद्धा था और उसने हिन्दुओं के सबसे अधिक युद्ध लड़े थे । कई बार उसने सेना लेकर मालवा पर धावा बोला और कई बार उसने गुजरात को लूटा । सैनी ने दस हज़ार घुड़सवार उज्जैन से अपने साथ लिए और वह तुर्कों पर टूट पड़ा और बहुत घमासान युद्ध के उपरांत वह वीर गति को प्राप्त हुआ । इसके (अर्थात सैनी की वीरगति के) उपरांत हिन्दू भाग खड़े हुए और बहुत सारे या तो मर डाले गए या बंदी बना लिए गए ।"

- 'THE HISTORY OF INDIA , AS TOLD BY ITS OWN HISTORIANS. THE MUHAMMADAN PERIOD ' by H. M. Sir Elliot, John Dowson , pp 541

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नोट- राजस्थान और दक्षिण हरियाणा में माली और पशिचमी यू.पी में गोले ,भागीरथी,मुराव (मौर्य),काछी (कुशवाहा), सागरवंशी (शाक्य), इत्यादि बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में सेना में भर्ती की योग्यता सिद्ध करने के लिए खुद को सैनी लिखना लगे । इनका यदुवंशी सैनी राजपूतों से किसी प्रकार का सांस्कृतिक या वंशानुगत सम्बन्ध नहीं है ।यदुवँशी सैनी राजपूत यदुवँश की जादों शाखा से हैं जिसमे राजा धर्म पाल , राजा विजय पाल और राजा थिंद पाल इत्यादि सैनी राजपूत राजा हुए । सैनी वंश कि स्थापना श्री कृष्ण के दादा महाराजा शूरसेन द्वारा हुई जिस कारण यह शूरसैनी कहलाते हैं । ग्यारवी और तेरवी शताब्दियों के अंतराल में सैनी राजपूत गज़नी और गौरी की फौजों से युद्ध करने के लिए मथुरा , बयाना, कमान और दिल्ली के क्षेत्रों से पलायन कर पंजाब में बसे